भाजपा लोकसभा चुनाव में भले ही 74 प्लस का नारा दे रही हो लेकिन उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 20 सीटों पर तो गठबंधन का गणित ही भारी पड़ता दिख रहा है। भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनाव में 80 में से 71 सीटें जीती थीं। इनमें 20 सीटों पर भाजपा के उम्मीदवारों की जीत का अंतर अधिकतम 1.15 लाख मतों का था। इनमें भी 17 उम्मीदवार एक लाख से कम मतों के अंतर से जीतकर संसद पहुंचे थे।
आंकड़ों को देखें तो इन सीटों पर सपा और बसपा को मिले वोट भाजपा को पीछे छोड़ देते हैं। जाहिर है, यदि सपा और बसपा को 2014 की तर्ज पर वोट मिले तो भाजपा की लड़ाई कठिन हो जाएगी। गोरखपुर, फूलपुर और कैराना संसदीय सीटों के उपचुनाव की तर्ज पर यदि इस लोकसभा चुनाव में भी सपा व बसपा अपने-अपने वोट एक-दूसरे को दिला ले गई तो इन 20 सीटों पर भाजपा की जीत की राह कठिन होती दिखाई देती है।
भाजपा के रणनीतिकार भी इस बात को समझ रहे हैं। शायद इसीलिए उन्होंने इन सीटों के चुनावी समीकरण दुरुस्त करने की कोशिश शुरू कर दी है। हालांकि चुनाव परिणाम तय करने में मुस्लिम मतदाताओं का रुख भी काफी कुछ तय करेगा क्योंकि कांग्रेस इस बार भी अलग चुनाव लड़ रही है। उसने कई स्थानों पर मजबूत चेहरों को मैदान में उतारकर लड़ाई त्रिकोणीय बनाने की कोशिश की है।
वैसे राजनीति में कभी दो और दो चार नहीं होता। वोट का गणित स्थिति और समीकरण तथा उम्मीदवारों की छवि एवं पार्टी के प्रति लोगों के नजरिया पर निर्भर करता है। पर, आम तौर पर जिस तरह मुस्लिम मतदाताओं का रुख भाजपा को हराने वाले उम्मीदवार को वोट देने का रहा है, उसे देखते हुए इन सीटों का गणित फिलहाल भाजपा की जीत की राह मुश्किल बनाता दिख रहा है।
सपा-बसपा ने पिछले लोकसभा और फिर विधानसभा चुनाव में मिली करारी शिकस्त और प्रदेश में हुए तीन संसदीय सीटों के उपचुनाव में मिली जीत का संदेश समझा। अखिलेश यादव और मायावती को त्रिकोणीय मुकाबले से हो रहे नुकसान का अहसास हो गया। साथ ही यह भी समझ में आ गया कि नरेंद्र मोदी के सामने एकला चलो की नीति से भाजपा का मुकाबला नहीं कर सकते। नतीजतन सपा और बसपा नेताओं ने परस्पर वैरभाव भुलाते हुए गठबंधन कर भाजपा व मोदी से मुकाबला करने का फैसला किया।
गठबंधन का गणित फेल करने में जुटी भाजपा
ऐसा नहीं है कि उपचुनाव की हार के बाद भाजपा ने कोई सबक ही नहीं लिया। भाजपा के रणनीतिकारों ने यह समझते हुए कि सपा-बसपा गठबंधन भाजपा की जीत की राह को कठिन कर सकता है, इसके नेताओं ने मोदी और योगी सरकार की योजनाओं के लाभार्थियों को अपने वोटों में बदलने पर काम किया।
बूथों को सपा और बसपा मुक्त बनाने पर ध्यान दिया और प्रयास किया कि स्थानीय स्तर पर दोनों पार्टियों के नेताओं को भाजपा में लेकर इनका जमीनी आधार कमजोर कर दिया जाए। पार्टी की तरफ से अनुसूचित जाति और पिछड़ी जातियों को भाजपा के पक्ष में लामबंद करने के लिए भी कई कदम उठाए गए। इनके सम्मेलन करने से लेकर इनके सरोकारों को सम्मान देने पर भी ध्यान दिया गया।